रविवार, 31 मई 2009

अब किसी पर नहीं रह गया ऐतबार

अब किसी पर नहीं रह गया ऐतबार,
जो भी मेरे थे मुझको न मेरे लगे |
मुझको अपनों ने लूटा बहुत इस कदर,
दोस्त भी जो मिले तो लुटेरे लग |

गैर हो तो मैं शिकवा शिकायत करूँ,
अब मैं अपनों की कैसे खिलाफत करूँ,
जब कभी कहना चाहा कोई बात तो,
रोकने के लिए कितने घेरे लगे |

रात जाने लगी फ़िर सवेरा हुआ,
दूर फ़िर भी न मन का अँधेरा हुआ,
रौशनी ने दिए इतने धोखे मुझे,
ये उजाले भी मुझको अंधेरे लगे |
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3 टिप्‍पणियां:

  1. रात जाने लगी फ़िर सवेरा हुआ,
    दूर फ़िर भी न मन का अँधेरा हुआ,
    रौशनी ने दिए इतने धोखे मुझे,
    ये उजाले भी मुझको अंधेरे लगे|

    khubsurat panktiyon ke liye badhai sweekaren.

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  2. प्रसन्न वदन जी,

    बात तो ऐसी है कि अंदर तक चोट करती है। प्रतिस्पर्धा का युग है यहां आदमई अपनी ही परछाई से मुकाबिल है तो दोस्त?

    अच्छी रचना है।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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